हिम्मत खान पन्ना कांग्रेस की मन मानी मुसलमानों की अनदेखी का आरोप
हिम्मत खान पन्ना कांग्रेस की मन मानी मुसलमानों की अनदेखी का आरोप

मध्य प्रदेश राज्य के रूप में 1956 में अस्तित्व में आया. गठन के बाद से सबसे अधिक शासनकाल कांग्रेस का रहा इसलिए मुसलमानों के घटते राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर कांग्रेस पर ही सभी ज़्यादा उंगलियाँ उठ रही हैं.
अब संगठन के वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर बोलना भी शुरू कर दिया है और कांग्रेस पार्टी के आला कमान पर ‘मुसलमानों की अनदेखी’ का आरोप लगाना शुरू कर दिया है. इन वरिष्ठ नेताओं ने प्रदेश के कई क्षेत्रों में समाज के लोगों से साथ बैठकें भी की हैं और पार्टी को इस बारे में चेताया भी है.
अज़ीज़ कुरैशी राज्यपाल भी रह चुके हैं और केन्द्रीय मंत्री भी. वर्ष 1972 से वो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी रहे हैं लेकिन इस बार उनका नाम केंद्रीय कमेटी की सूची में नहीं है.
कांग्रेस पार्टी से नाराज़ चल रहे वरिष्ठ नेताओं की अगुवाई वो ही कर रहे हैं.
कुरैशी कहते हैं, “आज मेरी ही पार्टी में मेरी कोई औकात नहीं रह गई है. सन 1972 से मैं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य रहा हूँ. इस बार मेरा नाम ग़ायब कर दिया गया है. कांग्रेस पार्टी सोचने लग गई है कि मध्य प्रदेश में मुसलमानों की औकात ही क्या है. झक मारकर हमारे पास आएँगे, और ये उनकी बहुत बड़ी ग़लतफहमी है. इनको ये एहसास दिलाना ज़रूरी है कि हम इनके ग़ुलाम नहीं हैं.”
कुरैशी का आरोप है कि पहले जो आवाजें मुसलमानों के अधिकारों के लिए उठा करतीं थीं, चाहे वो कांग्रेस पार्टी के अंदर से हों या समाजवादी सोच वाले नेताओं की हों, वो आवाजें अब धीमी पड़ गई हैं.
कुरैशी का कहना था, “कांग्रेस भी अब हिंदुत्व के रास्ते पर निकल पड़ी है ये सोचते हुए कि वो भारतीय जनता पार्टी का इसके ज़रिए मुक़ाबला कर सकती है. जो धर्मनिरपेक्षता के चैंपियन होने का दम भरते थे वो या तो डर गए हैं या फिर वोटों की ख़ातिर खामोश रहना पसंद कर रहे हैं.”
बग़ावत करने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का ये भी आरोप है कि उनकी पार्टी भी अब मुसलमान नेताओं को मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों से टिकट देने में हिचकिचा रही है.
ग़ुम होती जा रही है आवाज़
समाज के लोगों का कहना है कि विधानसभा से लेकर संसद तक प्रदेश के मुसलमानों के मुद्दों को उठाने वाली आवाजें ख़त्म होती जा रही हैं.
यास्मीन अलीम, ‘बेगम्स ऑफ़ भोपाल’ नाम की संस्था की सचिव हैं जो सामजिक कार्यों और मुसलमान बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र काम करती है. यास्मीन कहतीं हैं कि कम प्रतिनिधित्व के बावजूद कुछ वर्षों पहले तक भी सरकार मुसलमानों के मुद्दों पर ध्यान देती थी. वो कहती हैं, “लेकिन अब सरकार का रवैया भी बदला-बदला-सा है.”
उनका कहना था कि ग़रीब मुसलमान अपने बच्चों को सरकार से मिलने वाली छात्रवृति के सहारे पढ़ाते थे लेकिन पिछले साल से ही इसे बंद कर दिया गया है. वो कहती हैं कि उनका समाज का एक बड़ी आर्थिक तंगी से जूझ रहा है जो न तो अपने बच्चों के लिए फ़ीस का इंतज़ाम कर पा रहा है और ना ही किताबें.
यास्मीन कहती हैं, “सबसे ज़्यादा परेशानी मुसलमान महिलाएँ झेल रही हैं. घरेलू हिंसा से लेकर आर्थिक तंगी तक सारा बोझ मुसलमान महिलाओं के सिर पर है. हमारे लिए आवाज़ कौन उठाएगा? मुसलमान महिलाओं के लिए आवाज़ कौन उठाएगा? बड़ा दुःख होता है. हम क्या कर रहे हैं. हम कुछ भी नहीं कर पा रहे क्योंकि हमारी आवाज़ तो हर तरह से दबाई जा रही है.”