समलैंगिक जोड़ों की शादी का कोई मौलिक अधिकार नहीं — सुप्रीम कोर्ट
आगरा / नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में समलैंगिक विवाह को कानूनी तौर पर वैधता देने की अपील को खारिज कर दिया है। पांच न्यायधीशों पर आधारित पीठ ने अप्रैल और मई के बीच सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद आज इस संबंध में फैसला सुनाया। इस मामले में जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी की ओर से प्रसिद्ध वकील कपिल ने सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से ठोस तर्क प्रस्तुत किए और आरंभिक चरण में ही अदालत को सहमत किया था कि ऐसी शादी की किसी भी धर्म में अनुमति नहीं है। इसलिए पर्सनल लॉ के अंतर्गत इसपर विचार नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे में कोर्ट ने तय किया था कि इस शादी के बारे में बहस केवल स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत होगी। सिब्बल ने कहा था कि ऐसी शादियों के बुरे प्रभाव पड़ेंगे। यह मामला अन्य पारिवारिक कानूनों जैसे विरासत, उत्तराधिकार, गोद लेने और विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ को भी प्रभावित करेगा। इस मामले में जमीअत के वकील कपिल सिब्बल को एडवोकेट एमआर शमशाद और एडवोकेट नियाज अहमद फारूकी असिस्ट कर रहे थे। आज फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि इस मामले पर फैसला करना अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर है और संसद को विवाह से संबंधित कानून बनाने चाहिएं। सुनवाई के दौरान पांच जजों की संविधान पीठ ने माना कि केवल एक कानून में बदलाव से कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि तलाक, गोद लेने, विरासत जैसे लगभग 35 अन्य कानून हैं, जिनमें से अधिकतर धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों के अंतर्गत आते हैं। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ का कहना था कि इस बात पर एक सीमा तक सहमति और असहमति है कि हम समलैंगिक विवाह पर कहां तक जा सकते हैं। जस्टिस चंद्रचूड़ के साथ दो अन्य न्यायाधीशों ने इस बात पर सहमति जताई कि अदालत समलैंगिक विवाह को कानूनी दर्जा नहीं दे सकती और न ही अदालत स्पेशल मैरिज एक्ट (एसएमए) के प्रावधानों में परिवर्तन कर सकती है। यह एक धर्मनिरपेक्ष कानून है जो अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाहों को सुविधाजनक बनाने के लिए बनाया गया है। अदालत का मानना है कि विधायिका या संसद को समलैंगिक विवाह की अनुमति देने या न देने का निर्णय करना चाहिए। हालांकि चंद्रचूड़ ने कहा कि राज्य को समलैंगिक जोड़ों को कुछ कानूनी सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए। इसके लिए उन्होंने यह तर्क दिया कि समलैंगिक जोड़ों को दिए गए ’लाभ और सेवाओं’ से वंचित करना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। ज्ञात रहे है कि सुप्रीम कोर्ट समलैंगिकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा दायर 18 से अधिक याचिकाओं के संयुक्त मामले पर सुनवाई कर रहा था जिसमें याचिकाकर्ताओं का कहना था कि शादी नहीं करने की वजह से वह ’दोयम दर्जे के नागरिक’ बन रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने अप्रैल और मई में मामले की विस्तार से सुनवाई की। जनहित में अदालत की इस कार्यवाही का सीधा प्रसारण लाइव स्ट्रीम के माध्यम से किया गया। पांच जजों में मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, रविंदर भट्ट, हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा शामिल थे। इस फैसले का स्वागत करते हुए इस मामले के एक पक्षकार और जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने कहा कि भारत एक प्राचीन सभ्यता और संस्कृति वाला देश है, जो विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसे पश्चिमी दुनिया के स्वतंत्र विचारों वाले अभिजात्य वर्ग की मनमानी से कुचला नहीं जा सकता। न्यायालय ने इस फैसले से विवाह की पवित्र और शुद्ध व्यवस्था की रक्षा की है जैसा कि हमारे देश में सदियों से समझा और उसे आत्मसात किया जा रहा है। हम व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा और अपने सांस्कृतिक मूल्यों की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने में अदालत के परिपक्व फैसले की सराहना करते हैं।