आचार्य विशुद्ध सागर महाराज को “सत्यार्थ बोध” के लिए मिली “डी.लिट” की उपाधि
आचार्य विशुद्ध सागर महाराज को "सत्यार्थ बोध" के लिए मिली "डी.लिट" की उपाधि
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बिट्रिश नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ क्वीन मेरी यूके, अमेरिका ने किया सम्मानित
भोपाल, दिनांक 04.09.2023
बिट्रिश नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ क्वीन मेरी यूनाइटेड किंगडम और यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका द्वारा आचार्य विशुद्ध सागर महाराज को उनके द्वारा सृजित “सत्यार्थ बोध” अंग्रेजी संस्करण को “डी.लिट” की उपाधि से सम्मानित किया है।
आचार्य विशुद्ध सागर महाराज की औपचारिक शिक्षा ग्यारहवीं तक ही हुई है । उन्होंने नीतिशास्त्र का अलौकिक नायाब ग्रन्थ “सत्यार्थ बोध” सृजित कर विश्व में कीर्तिमान बना दिया। यह कल्पना से परे लगता है लेकिन तथ्य है। दिगम्बर जैन आचार्य श्री विशुद्ध सागर ने “सत्यार्थ बोध” के माध्यम से नई पीढ़ी के लिए अमूल्य ज्ञान का की निधि संजोकर रख दी है।
उत्तर प्रदेश के बड़ौत शहर में चातुर्मास कर रहे आचार्य श्री विशुद्ध सागर महाराज के कर कमलो में समाज के शीर्षस्थ विद्धानों द्वारा डी.लिट उपाधि का प्रमाण-पत्र समर्पित किया।
यह है “सत्यार्थ बोध” ग्रन्थ
“सत्यार्थ बोध” अध्यात्म योगी विशुद्ध सागर के अंतरंग मन के मनन चित्त के चिंतन मंथन, चैतन्य के तत्व-ज्ञान से उदभूत हुई मौलिक कृति है। यह पाश्चात्य संस्कृति से अशांत पथ भ्रमित मानव को स्वात्म संस्कृति के प्रति चैतन्य कर सुप्त-मानवीय आदर्शो को जाग्रत करती है । यह नैतिक पूर्ण जीवन निर्माण के लिए जनोपयोगी, पठनीय अनुकरणीय स्तुत्य एवं महत्वपूर्ण है।
“सत्यार्थ बोध” में न्याय को सैद्धांतिक तरीके से और सहज रूप से गूँथा गया है। धर्म संप्रदाय पंथवाद से दूर तक का रिश्ता नहीं है। इनमें मानवीयता की नैतिक शिक्षा है। हरेक स्थान पर नीतियों को गूंथा गया है। सर्वोन्नति के सूत्र है पर कृतत्व की गंध नहीं मिलती।
किसी ग्रन्थ का लेखन एक श्रम साध्य कार्य है। इसमें गहन आध्यात्मिक बोध के साथ बौद्धिक श्रम भी लगता है। शारीरिक श्रम मनोयोग पूर्वक एक पृष्ठ सृजित करने में लगता है । कुल 369 पृष्ठ के इस ग्रन्थ में आचार्य श्री द्वारा की गई व्याख्या को शास्त्र-सृजनकर्ता ही महसूस कर सकता है। “सत्यार्थ बोध” का लेखन हैदराबाद शहर के दिगम्बर जैन मंदिर में वर्ष 2018 में अप्रैल-मई में ग्रीष्म वाचना में प्रारंभ होकर माह अप्रैल 2020 में पूरा हुआ।
आचार्य विशुद्ध सागर के संघस्थ मुनि श्री सुबत सागर महाराज ने इस अलौकिक ग्रन्थ का संपादन किया और अंग्रेजी कृति का रूप श्री विजय के. जैन द्वारा दिया गया है।